“पंचायत चुनाव पर संकट के बादल: आपदा, आरक्षण और अदालती चुनौतियों के बीच उलझी ‘छोटी सरकार'”

देहरादून, उत्तराखंड में प्रस्तावित पंचायत चुनावों को लेकर इन दिनों असमंजस की स्थिति बनी हुई है। एक ओर जहां नामांकन प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और चुनावी कार्यक्रम तय हो चुका है, वहीं दूसरी ओर इन चुनावों के समय, प्रक्रिया और निष्पक्षता को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।

राज्य में पंचायतों को लोकतांत्रिक तरीके से चुनने की प्रक्रिया लटकती रही है। निर्धारित समय पर चुनाव न हो पाना, पंचायतों को प्रशासकों के हवाले किया जाना, और आरक्षण-रोटेशन की अधूरी प्रक्रिया इस बात का संकेत हैं कि राज्य सरकार इन चुनावों को लेकर कितनी गंभीर है। वर्तमान में जब राज्य मानसून आपदाओं की चपेट में है, ऐसे समय में चुनाव कराए जाना प्रशासनिक तंत्र की प्राथमिकताओं पर भी सवाल उठाता है।

हालांकि, चुनावी कार्यक्रम जारी होने के बाद नामांकन से लेकर नाम वापसी तक की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, लेकिन चुनाव की वैधता और समय को लेकर स्थिति अब भी स्पष्ट नहीं है। हाईकोर्ट में एक ओर सामाजिक कार्यकर्ता और आरटीआई एक्टिविस्ट चुनाव को आपदा काल में कराए जाने पर आपत्ति जता रहे हैं, तो दूसरी ओर अनेक प्रत्याशी इस बात को लेकर अदालत की शरण में पहुंच चुके हैं कि उनके नामांकन बिना उचित जांच के खारिज कर दिए गए।

बीते कुछ दिनों में हाईकोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं, जिनमें आरोप है कि रिटर्निंग अधिकारियों ने बिना पर्याप्त जांच के नामांकन खारिज किए हैं। इन मामलों की गंभीरता को देखते हुए अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। इसके अलावा आरक्षण को लेकर भी कई विसंगतियां सामने आई हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ पंचायतों में ऐसे वर्ग के लिए सीट आरक्षित कर दी गई, जहां उस वर्ग के प्रत्याशी उपलब्ध ही नहीं हैं, जिससे नामांकन ही दाखिल नहीं हो सका।

चुनाव को लेकर जनमानस में भी उत्साह की कमी देखी जा रही है। लोगों का कहना है कि ऐसी अव्यवस्थित और संवेदनहीन परिस्थितियों में चुनाव कराने की बजाय सरकार को प्रशासकों का कार्यकाल कुछ और समय के लिए बढ़ा देना चाहिए था।

राज्य इस समय चार धाम यात्रा, कांवड़ यात्रा और भीषण मानसूनी आपदा से जूझ रहा है। 180 से अधिक सड़कें भूस्खलन के कारण बंद हैं, बादल फटने की घटनाएं कई क्षेत्रों में जनजीवन को तबाह कर चुकी हैं। प्रशासन आपदा प्रबंधन में व्यस्त है, ऐसे में पंचायत चुनावों को सुरक्षित और निष्पक्ष ढंग से संपन्न करा पाना एक बड़ी चुनौती है।

हालांकि इन तमाम उलझनों के बीच कुछ सकारात्मक संकेत भी देखने को मिल रहे हैं। कई शिक्षित युवा, सेवानिवृत्त सेना अधिकारी, और पूर्व पुलिस अधिकारी ग्राम स्तर की “छोटी सरकार” में भागीदारी के लिए आगे आए हैं। इससे लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती देने की संभावनाएं जागी हैं।

अब निगाहें हाईकोर्ट के निर्णय पर टिकी हैं। क्या अदालत इन चुनावों को निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार कराने की अनुमति देगी, या एक बार फिर चुनाव को स्थगित कर दिया जाएगा—यह आगामी दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। इससे पहले भी चुनाव आयोग को चुनाव स्थगन के कारण दोबारा अधिसूचना जारी करनी पड़ी थी।

पंचायत चुनाव केवल एक संवैधानिक प्रक्रिया नहीं बल्कि जमीनी लोकतंत्र की आत्मा हैं। इन्हें लेकर सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका को मिलकर एक ऐसा रास्ता निकालना होगा जो संवेदनशील, पारदर्शी और व्यावहारिक हो—ताकि उत्तराखंड की “छोटी सरकारें” वास्तव में जनता की आवाज बन सकें।

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