श्रद्धा हत्याकांड : प्रेम में प्रविष्ट पाशविकता
डॉ. घनश्याम बादल
प्रेम एक आत्मिक अनुभूति है। एक-दूसरे के प्रति समर्पण, निष्ठा एवं विास का प्रतीक है प्रेम। मगर जब यह तथाकथित ‘प्रेम’ केवल दैहिक आकषर्ण रह जाए अथवा मन में वासना का ज्वर हावी हो जाए तो फिर वह प्रेम नहीं कुछ और हो जाता है।
प्रेम तब भी प्रेम नहीं रहता जब उसमें केवल पाने की इच्छा हो अथवा प्रेम को सीढ़ी बनाकर प्रगति के सोपान चढऩे की हवस उसके पीछे छुपी हो। आज आधुनिकता की होड़ में लगे युवा वर्ग ने प्रेम को पाने का पर्याय बना दिया है या फिर कहें कि अब प्रेम में पाप इस तरह घुल मिल गया है कि प्रेम और पाप को अलग करके देखना मुश्किल हो गया है।
प्रेम उदारता का दूसरा नाम है, प्रेम में सर्वस्व समर्पण एवं दूसरे के प्रति उदारता निहित है, लेकिन जब प्रेम मानवीय न होकर दानवीय हो जाए तो फिर प्रेम पर पाशविकता हावी हो जाती है और आजकल प्रेम पर पाशविकता का कब्जा सा हो गया दिखता है। जिस तरह श्रद्धा की हत्या की गई उसके शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करके फ्रिज में रखा गया, बड़े शांत दिमाग के साथ उन्हें अलग-अलग भागों में फेंका गया और विज्ञान तथा तकनीकी का उपयोग करके उसकी बदबू रोककर पड़ोसियों तक को उसकी भनक तक नहीं लगने दी गई यह प्रेम में प्रविष्ट हुई पाशविकता का घिनौना उदाहरण है।
आधुनिक होना बुरा नहीं है, लेकिन आधुनिकता के नाम पर जीवन मूल्यों को ताक पर रख देना, नैतिकता को दरकिनार कर देना, भौतिकता के गर्त में इतना डूबना कि आत्मा से आत्मा का मिलन महज एक शाब्दिक लफ्फाजी मात्र रह जाए तो फिर आज के प्रेम पर शंका होना स्वभाविक है, और जिस समाज को हम सभ्य समाज मानते हैं उसमें जितनी संख्या ऐसी घटनाएं दिखाई दे रही हैं उसे देखते हुए उस समाज को सभ्य कहने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है।
वैसे ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार का नृशंस हत्याकांड कोई पहली बार हुआ हो या फिर प्रेम में धोखा पहले न हुआ हो। पहले भी ऐसे प्रकरण सामने आते रहे हैं नैना साहनी हत्याकांड में उसके शरीर को तंदूर में जलाकर नष्ट किया गया, उत्तराखंड में घूमने आए इंजीनियर ने खुद अपनी पत्नी की हत्या करके उसके शव के टुकड़े-टुकड़े करके ऐसे पहाड़ी स्थानों पर फेंके जहां से उनकी बरामदगी कल्पना से बाहर थी। यह तो केवल दो उदाहरण मात्र हैं ऐसे हजारों प्रकरण देश में होते रहते हैं मगर वे अखबारों की सुर्खियों या टीवी की खबरों तक नहीं पहुंच पाते। दिल्ली में होने की वजह से निर्भया हत्याकांड सुर्खियों में आ जाता है श्रद्धा प्रकरण जोर पकड़ता है, लखनऊ में निधि का मरना सबको पता चल जाता है देहरादून के होटल में काम करने वाली अंकिता को भी नदी में फेंक दिया जाता है तो उससे भी थोड़े से समय के लिए एक ज्वार उठता है, लेकिन छोटे शहरों कस्बों एवं गांव में इस प्रकार का कितना पाशविक प्रेम पनपता है इसकी खबर देश को नहीं लग पाती।
आधुनिक जीवन शैली एवं उन्मुक्त यौन संबंध को प्रगतिशीलता मानने वाले समाज ने प्रेम में एकनिष्ठा का गला घोंट दिया है। कुछ वर्ष पहले ही घटित आरु षि हत्याकांड में भी ‘वाइफ स्वैपिंग’ का तत्व प्रकाश में आया था यानी अब प्रेम आत्मा से आत्मा के मिलन की नहीं बल्कि शरीर से आनंद लेने और फिर किसी भी डर या दूसरी वजह से उसे नष्ट कर देने का दूसरा पर्याय बनता जा रहा है। बहुत ही चिंताजनक है यह परिवेश और वातावरण। आफताब ने जो कुछ किया यदि वह सच है तो घृणित भी है और निंदनीय भी। यहां ‘यदि यह सच है’ इसलिए जोड़ा गया है क्योंकि भारत में न्यायालय के फैसले कब किस तरह की करवटें ले लें कहा नहीं जा सकता है।
किस कदर रूह को कंपा देने वाली वारदात है यह। जिसके साथ आपने कई साल गुजारे हैं, वो अपने मां-बाप को छोडक़र पार्टनर के साथ रहने आ गया हो। उसे ही न केवल आप मार डालते हैं अपितु उसके शव के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं। उसका सर फ्रिज में रख आप रोज देखते हैं, और खुश होते हैं तो आप मनुष्य कहलाने काबिल तो नहीं है। आधुनिकता के नाम पर ‘लिव इन’ या ऐसी ही दूसरी प्रवृत्तियों को कानून स्वीकृति भले ही दे दे या आंख मूंद कर बैठ जाए, लेकिन पश्चिमी देशों के अंधानुकरण की यह प्रवृत्ति हमें कहां ले जा रही है यह साफ दिख रहा है। बात-बात पर धरने-प्रदर्शन एवं विरोध करने वाली सामाजिक संस्थाएं तो बहुत हैं।
मगर ऐसे मुद्दों पर अडऩे एवं लडऩे वाली संस्थाएं एवं लोग कहीं गायब होते जा रहे हैं। लिहाजा एक ऐसी संस्था सरकार का गठन करे, जो इस प्रकार के संवेदनशील एवं नैतिक मूल्यों से संबंधित प्रकरणों पर स्वयं संज्ञान ले और इन्हें रोके। यहां सवाल केवल श्रद्धा या आफताब का नहीं है। ‘लव जिहाद’ का भी नहीं है वरन प्रेम के नाम पर शोषण या पाशविकता का है। उससे भी बड़ा प्रश्न है जीवन मूल्यों एवं नैतिकता का, प्रेम की सात्विकता का। इस भरोसे को हमें बनाकर रखना होगा वरना आफताब प्रतीकात्मक रूप से दुनिया को अंधेरा ही बांटते रहेंगे।